18.4.10

 
 
वोह  आज  काटों  के  दरमियान  न  जिए ,
इसलीये  हम  प्यार  कर  बैठे ,
 वोह  अपने  अखीयों  से  अन्स्सों  न  बहाए ,
इसलीये  हम  मुस्कराहट  के  नकाब  बन  बैठे ,
हमारी  खुदगर्जी  थी  की  उनकी  हंसी  बने ,
फीर  भी  आज  हम  उन अँजान  आँखों  बेजान  बन  बैठे  ..
मेरे  तकदीर  का  ठूटा  आइना  ही  ठुम ,
जिसमें  तुमने  हमारी  प्यार  का  पर्ची  चीन  लीया ,
पर  वक़्त  हमें  चीन  लीया ,
और  आइना  भी  सवर्ण  छोड़  दीया ,
आज  थक  शिकवा  नहीं  थी  खुदा  से ,
लगा  ki जिन्दगी में  सभ  मुरधे  पूरी  हुई ,
जबह  जनाज़ा  उठा  और  उसने  पलकों  से  अनसुन  बहाए ,
लगा  की मौत  भी  अधूरी  हुई  ..
आज  बदनाम  करना  चाहता  हूँ  तुझे ,
 प्यार  का  एख  दाग  तेरे  दामन  में ,
थाकी  तुझे  कोई  अगर  पूछे ,
ताब  कहना  एख  शायर  की  पहचान  हूँ  में 


"मेरा  नाम  है  मोहब्बत "

खोयी  खोयी  सी  धीमी  - धीमी  सी 
थोड़ी  अनकही थोडीसी सी  मुस्कुराती
दो  दीलों की   है  इजाज़त  मेरा  नाम  है  मोहब्बत 
दो  दीलों  की  है  इजाज़त  मेरा  नाम  है  मोहब्बत 
भीगे  सपने  काची  यादें
छोटी - छोटी  दिल  की  बातें
कहती  है  यह 
jindgi  कैसी  है  दीवानगी
कोई  रहता  है  आहटों  के  सहारे  
छुलूं  तो  सनसनाहट  मेरा  नाम  है  मोहब्बत 
कुछ  तहरीरें  लीखते रहना
अपने  घर  में  चलते  रहना 
अनजानी  बातों  में  भी  होती  है  दील की लगी
सूखे  लम्हों  में  न  बारीशों  के  किनारे
होठों पे  है  शरारत  मेरा  नाम  है  मोहब्बत
होंटों  पे  है  शरारत  मेरा  नाम  है  मोहब्बत 
अंजान  कवी

चलो फीर आज कुछ तुम्हारे नाम लीखते हैं

चलो  फीर आज कुछ तुम्हारे नाम लीखते हैं 
 
वो  वादों   के हसीं  शाह  परे 
वो  फुरक़त  के  घुम्गीन  इस्तरी 
वो  तेरे  हीजेर मैं  बीती   रातें 
वो  तेर ऐ  इन्तजार  क  लमही 
कहूं  क्या  मैं  ऐ  जान  ऐ  जनान 
कह  अब  भी  याद  आतीं  हैं  वो  रातें 
लीखे तो  क्या  लीखे  तुम  ही  बताओ 
कलम  मैं  ताक़त  ऐ  गुफ्तार  है  कब 
न  सुन  सकती  ही  तुम  फिर्कत  क  कीसी
तो  जनान  कीया  लीखे हम ?
कई  यादें  कई  बातें 
जो  हम  को  याद  आतीं  हैं 
न  हम  महफूज़  करती  हैं 
कीसी  भी  संग  ऐ  मर - मर  पर
तो  फीर  कीया  लीखें जनान 
बताओ  क्या लीखें हम  फीर ??
अंजान कवी 
~ बताओ  क़ीया लीखें हम  फीर~
  
हम  जीन  को  अपनी  नज्मून  का 
उन्वान  बनाया  करते  थे 
लाफ्ज़ुं  का  बना  कर  ताज  महल 
कागज़  पर  सजाया  करते  थे 
वो  हम  को  अकेला  छुर  गए 
सब  रीश्तों  से  मून  मुर्र  गए 
अब  रीशते सारे  सूने  हैं 
वो  प्यार  कहाँ  अब  बाक़ी  है 
अब  कीया  लीखें  हम  कागज़  पैर 
अब  लीखने   को  कीया  बाक़ी  है 
~~~ अंजान कवी ~~~~