11.5.10

दे के दील हम जो ही गए मजबूर ,

" दे  के  दील  हम  जो  ही  गए  मजबूर "
 
दे  के  दील  हम  जो  ही  गए  मजबूर ,
इस  में  क्या  इखतीयार  है  अपना  
बे -खुदी  ले  गयी  कहाँ  हम  को , 
दीर  से  इंतज़ार  है  अपना ,
रोते  फीरते  हैं  सारी - सारी  रात , 
अब  यही  रोज़गार  है  अपना , 
दे  के  दील  हम  जो  हो  गए  मजबूर , 
इस  में  क्या  इखतीयार   है  अपना,  
कुछ  नहीं  हम  मीसाल - ऐ - अनका    लेक , 
शहर - शहर  इश्तेहार  है  अपना , 
जीस  को   तुम  आसमान  कहते  हो , 
सो  दीलों  का  गुबार  है  अपना ,

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